BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - ११

तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त)

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )

उत्तर -

तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )

[ अनुमानस्य किं लक्षणम्] अनुमितिकरणमनुमानम्। [अनुमितिः का?] परामर्शजन्य ज्ञानमनुमितिः। [परामर्शस्य किं स्वरूपम्?] व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानं परामर्शः। यथा 'वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत' इति ज्ञान परामर्शः। तज्जन्यं पर्वतो वह्निमानिति ज्ञानमनुमितिः।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री अन्नम्भट्ट प्रणीत तर्कसंग्रह से अवतरित हैं। अन्नम्भट्ट न्याय एवं वैशेषिक के प्रकाण्ड पण्डित थे।

प्रसंग - यहाँ अनुमान प्रमाण निरूपण से अनुमान प्रमाण का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - [ अनुमान का क्या लक्षण है] अनुमिति का करण अनुमान है। [ अनुमिति क्या है?] परामर्श से उत्पन्न ज्ञान अनुमिति है। [ परामर्श का क्या स्वरूप है?] व्याप्ति से विशिष्ट (धूम = हेतु) का पक्षधर्मता- ज्ञान (पक्ष = पर्वत में रहने का ज्ञान परामर्श है, जैसे- 'यह पर्वत वह्निव्याप्य (वह्निव्याप्तिविशिष्ट ) धूम वाला है ) यह ज्ञान परामर्श है। इस परामर्श से उत्पन्न होने वाला 'पर्वत आग वाला हैं' यह ज्ञान अनुमिति है।

अनुमान प्रमाण है और अनुमिति प्रमा अर्थात् अनुमान साधन (करण) है और अनुमिति फल (साध्य = ज्ञान )। अतः अनुमिति के कारण को अनुमान कहा जाता है। अब प्रश्न यह है कि अनुमिति का करण क्या है? इसके उत्तर में प्राचीन नैयायिक व्याप्ति को करण मानते हैं तथा नवीन नैयायिक परामर्श को ग्रन्थाकार अन्नम्भट्ट यहाँ नवीन नैयायिकों के पक्ष में आश्रय लेकर 'परामर्श को अनुमिति का करण मानते हैं 'परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः' अर्थात् परामर्श है 'अनुमान प्रमाण' और तज्जन्य ज्ञान है "अनुमिति। प्राचीनों के मत में 'परामर्श' व्यापार है। अब प्रश्न है कि 'परामर्श' का अर्थ क्या है? परामर्श का अर्थ है- 'व्याप्ति 'से विशिष्ट हेतु का पक्ष में रहने का ज्ञान (व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मताज्ञानं परामर्शः) अर्थात् साध्य (व्यापक = अग्नि आदि) के साथ नियतरूप से रहने वाले साधन ( व्याप्य = धूमादि) का साध्य - स्थल (पक्ष = पर्वतादि) में रहने का ज्ञान परामर्श है। न्यायदर्शन में अनुमान के पाँच अवयव माने गये हैं।
१. प्रतिज्ञा - पर्वतों वह्निमान् (पर्वत में आग है)।
२. हेतु -धूमवत्वात् ( क्योंकि पर्वत में धूम है )।

३. उदाहरण - यो यो धूमवान् स स वह्निमान् यथा महानसम् (जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग रहती है, जैसे- रसोई घर )।

४. उपनय - तथा चायम् (यह पर्वत भी रसोई घर के समान वह्निव्याप्य धूम वाला है)।
५. निगमन -तस्मात्तथा (अतः यह पर्वत भी आग वाला है )।

इस पाँच अवयव वाले उदाहरण में पर्वत पक्ष (जहाँ साध्य सिद्ध किया जाता है) है। पर्वत में आग की सत्ता साध्य है। धूम हेतु है अर्थात् लिङ्ग है। रसोई घर सपक्ष (उदाहरण स्थल) है। धूम और आग के साहचर्य को बतलाने वाला उदाहरण वाक्य व्याप्ति है। उदाहृत व्याप्ति की विशेषता से विशिष्ट हेतु (धूम) का पक्ष (पर्वत) में रहने का प्रतिपादन करने वाला वचन उपनयं ( हेतु का उपसंहार) है। 'पक्ष (पर्वत) में साध्य (आग) की स्थिति अबाधित है, ऐसा प्रतिपादक वाक्य निगमन (साध्य का उपसंहार है ) धूमआदि हेतु 'व्याप्य' है। आग आदि साध्य 'व्यापक' है।

२.

[ व्याप्तिः का? ] यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः' इति साहचर्यनियमों व्याप्तिः। [ पक्षधर्मतायाः किं लक्षणम्?] व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्वं पक्षधर्मता।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति में व्याप्ति की परिभाषा का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - [ व्याप्ति क्या है?] 'जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग है, इस साहचर्य नियम (समान अधिकरण में रहना) को व्याप्ति कहते हैं। [ पक्षधर्मता का क्या लक्षण है?] व्याप्य (व्याप्तिविशिष्ट धूम आदि हेतु) का पर्वत (पक्ष) आदि में रहना पक्षधर्मता है।

'साहचर्यनियमों व्याप्तिः' हेतु और साध्य का त्रैकालिक साहचर्य-नियम व्याप्ति है। साहचर्य को ही समानाधिकरण्य (एक आश्रय में रहना) और अव्यभिचरितत्व (साध्याऽभाववदवृत्तित्वम् = साध्यभाव वाले स्थल में न रहना) भी कहा जाता है। इस प्रकार व्याप्ति एक प्रकार का साध्य और साधन का सम्बन्ध विशेष है। यह व्याप्ति दो प्रकार की है-

(i) अन्वयव्याप्ति - इसमें हेतु के रहने पर साध्य का सद्भाव बताया जाता है। अतः साधन (धूम) व्याप्त होता है और साध्य (अग्नि) व्यापक जैसे यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः, यथा महानसम् (जहाँ-जहाँ धूम वहाँ-वहाँ अग्नि जैसे रसाई घर )।

(ii) व्यतिरेकव्याप्ति - इसमें साध्य के अभाव से साधन का अभाव बताया जाता है। अतः साध्याभाव (वह्नाभाव) व्याप्त होता है और साधनाभाव (धूमाभाव) व्यापक होता है। जैसे यत्र यत्र वह्नाभावः तत्र-तत्र धूमाभाव, यथा जलहृदः (जहाँ-जहाँ आग का अभाव है वहाँ-वहाँ धूम का अभाव है, जैसे तालाब आदि)। अयोगोलक (तप्त लौहपिण्ड) में आग तो है परन्तु धूम नहीं है। अतः व्यतिरेकव्याप्ति में साधनाभाव से साध्याभाव होता है, ऐसा नहीं कर सकते हैं, अन्यथा अयोगोलक में व्यभिचार (दोष) होगा क्योंकि अयोगोलक में साधनाभाव ( धूमाभाव) तो है परन्तु साध्याभाव ( वह्नयाभाव) नहीं है। अतः व्यतिरेकव्याप्ति में हमेशा साध्याभाव से साधनाभाव बताया जाता है।

३.

[अनुमानं कतिविधम्?] अनुमानं द्विविधिम् स्वार्थं परार्थं च। सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - उक्त पंक्ति में अनुमान प्रमाण के प्रकारों का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - [ अनुमान कितने प्रकार का है?] अनुमान दो प्रकार का है - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। [स्वार्थानुमान क्या है?] उनमें अपनी अनुमति के हेतु को स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे - स्वयं ही बार-बार देखने से जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग है' इस प्रकार रसोई घर आदि में व्याप्ति को जानकर पर्वत के पास गया और वहाँ स्थित आग में सन्देह करता हुआ पर्वत में धूम को देखकर व्याप्ति का स्मरण करता है 'जहाँ-जहाँ धूम है वहाँ-वहाँ आग है। इसके बाद यह 'पर्वत वह्निव्याप्य धूम वाला है' यह ज्ञान उत्पन्न होता है। इसे ही 'लिङ्-परामर्श' कहते हैं। इस परामर्श से 'पर्वत आग वाला है ऐसा अनुमिति ज्ञान उत्पन्न होता है। यह स्वार्थानुमान है। [परार्थानुमान का क्या स्वरूप है?] जो स्वयं धूम हेतु से अग्नि का अनुमान करके दूसरे व्यक्ति के बोध कराने के लिए पाँच अवयवों वाले वाक्य का प्रयोग किया जाता है वह परार्थानुमान है। जैसे- 'पर्वत आग वाला है' क्योंकि वह धूमवाला है, जो जो धूमवाला है वह वह आग वाला हैं, जैसे रसोईघर, वैसा ही यह पर्वत भी है, अतः वैसा (यह पवर्त आग वाला) है। इस प्रकार कहे गए (पाँच अवयवों से युक्त वाक्य से प्रतिपादित) लिङ्ग (हेतु = धूमादि से पर दूसरा व्यक्ति) भी अग्नि को जान लेता है।

स्वार्थ और परार्थ के भेद से अनुमान दो प्रकार का होता है। 'स्वार्थ स्वानुमिति हेतु:' स्वार्थानुमान अपने अनुमिति ज्ञान का हेतु है। जैसे कोई स्वयं ही बार-बार देखकर 'जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ अग्नि है। इस प्रकार रसोईघर आदि में व्याप्ति को ग्रहण करके पर्वत के समीप जाकर उसमें अग्नि का सन्देह होने पर पर्वत में धूम को देखता हुआ 'जहाँ-जहाँ धुआँ वहाँ-वहाँ अग्नि, इस व्याप्ति का स्मरण करता है। तत्पश्चात् 'यह पर्वत अग्नि से व्याप्त धुआँ वाला है' यह ज्ञान उत्पन्न होता है। यही लिङ्ग परामर्श कहलाता है। इससे पर्वत वह्निमान् है, यह अनुमिति ज्ञान उत्पन्न होता है, यही स्वार्थानुमान है।

जो दूसरे के लिए हो वह 'परार्थः' अतः जब दूसरे व्यक्ति को धूमादि हेतु से अग्नि आदि साध्य की अनुमिति कराई जाए तो उस श्रोता को समझाने के लिए प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव वाक्य प्रयोग किया जाता है - यत्तु स्वयं धूमादिग्निमनुमाय परं प्रति बोधयितुं पञ्चावयववाक्यं प्रयुज्यते तत्परार्थानुमानम्'। इस प्रकार स्वार्थानुमान में हम स्वयं अपने अनुभव से अनुमान कर लेते हैं जबकि परार्थानुमान में पञ्चावयव वाक्य प्रयोग के द्वारा दूसरे के लिए समझाते हैं।

४.

[ पञ्चावयवाः के? ] प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि पञ्चावयवः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

 

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति में परार्थानुमान में प्रयुक्त होने वाले पञ्च अवयवों का उल्लेख है।

व्याख्या - [ पञ्च अवयव कौन हैं] प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन ये पाँच अवयव हैं। परार्थानुमान में जिस पञ्चावयव वाक्य को बताया गया है उसके ही ये पाँच अवयव हैं.

१. प्रतिज्ञा - 'साध्यवत्तया पक्षवचनं प्रतिज्ञा, वह्नि आदि साध्य से युक्त पर्वत आदि पक्ष का बोध कराने वाले वचन को प्रतिज्ञा कहते हैं। जैसे 'पर्वतोवह्निमान्' पर्वत आग वाला है।

२. हेतु - 'पञ्चम्यन्तं लिङ्ग प्रतिपादक वचनम् हेतुः पञ्चम्यन्त लिङ्ग के प्रतिपादक वचन को हेतु कहते हैं। जैसे- 'धूमात्' या 'धूमवन्तत्वात्' (धूम वाला होने से )।

३. उदाहरण - 'व्याप्तिप्रतिपादकं वचनमुदाहरणम् = व्याप्ति का प्रतिपादन करने वाले वचन को उदाहरण कहते हैं। जैसे- 'यो यो धूमवान् य स वह्निमान' यथा महानसः (जो-जो धूमवाला है वह वह आगवाला है, जैसे रसोईघर)।

४. उपनय - व्याप्तिविशिष्टहेतोः पक्षधर्मताप्रतिपादकं वचनमुपनयः' व्याप्तिकी विशेष से विशिष्ट धूमादि हेतु का पर्वतादि पक्ष में रहने का प्रतिपादक वचन उपनय है। जैसे- 'वह्नि व्याप्यधूमवानयं पर्वतः ( आग से व्याप्त धूमवाला यह पर्वत है )।

५. निगमन - हेतुसाध्यवन्तया पक्षप्रतिपादकं वचनं निगमन् हेतु की साध्यवन्ता के साथ पक्षप्रतिपादक वचन निगमन है। जैसे- 'तस्माद्वह्निमान् पर्वतः' (अतः पर्वत आग वाला है)।

इन पाँचों अवयवों के क्रमशः प्रयोजन हैं (१) पक्षज्ञान, (२) लिङ्गज्ञान, (३) व्याप्तिज्ञान, (४) पक्षधर्मताज्ञान और (५) अबाधितत्त्वादि।

५.

[स्वार्थानुमितिपरार्थानुमित्योः किं करणम्?] स्वार्थानुमितिपरार्थानुमित्योर्लिङ्गपरामर्श एव करणम्। तस्माल्लिङ्गपरामशोऽनुमानम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - अनुमान प्रमाण की समुचित परिभाषा का विश्लेषण उक्त पंक्ति में हुआ है।

व्याख्या - [ स्वार्थानुमिति और परार्थानुमिति का करण क्या है?] स्वार्थानुमिति और परार्थानुमिति में लिङ्ग परामर्श ही करण है। अतएव लिङ्ग परामर्श ही अनुमान है।

'वह्निव्याप्य धूमवान् पर्वतः' अथवा 'वह्निव्याप्योधूमः पर्वते ऐसा लिङ्गपरामर्शात्मक ज्ञान ही दोनों प्रकार की अनुमितियों का कारण है। अतएव लिङ्परामर्श ही अनुमान प्रमाण है। यह लिङ्गपरामर्श तृतीय कोटि का ज्ञान है-

(१) रसोईघर आदि में धूम और आग की व्याप्ति को ग्रहण करने पर जो धूमज्ञान होता है वह प्रथम ज्ञान है।

(२) पक्ष (पर्वतादि) में जो धूमवान होता है वह द्वितीय ज्ञान है।

(३) पक्ष (पर्वत आदि) में ही वह्नि की व्याप्ति के आश्रयत्वेन जो धूमज्ञान है वह तृतीयज्ञान (लिङ्गपरामर्श) अतः लिङ्गपरामर्श ही अनुमान है।

६.

[ लिङ्ग कतिविधम्? ] लिङ्ग त्रिविधम् अन्वयव्यतिरेकि, केवलान्वयि, केवलव्यातिरेकि चेति।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति में लिङ्ग के प्रकारों का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - [ लिङ्ग कितने प्रकार का है?] लिङ्ग तीन प्रकार का है अन्वयव्यतिरेकि केवलान्वयि और केवलव्यतिरेकि। इन्हें ही क्रमशः विधि - निषेधपरक विधिपरक एवं निषेधपरक भी हो सकते हैं। तीनों के स्वरूप एवं उदाहरण को हम पृथक्-पृथक् निम्नवत् समझ सकते हैं

१. अन्वयव्यतिरेकि - वह हेतु अन्वयव्यतिरेकि कहलाता है जिसमें साध्य के साथ अन्वयव्याप्ति तथा व्यतिरेकव्याप्ति दोनों हों। जैसे 'पर्वतों वह्निमान् धूमवत्वात्' अर्थात् पर्वत आग वाला है, धूम वाला होने से, इस प्रसिद्ध स्थल में 'धूमवत्त्व' हेतु अन्वयव्यतिरेकि है क्योंकि इसकी साध्य के साथ दोनों प्रकार की व्याप्तियाँ सम्भव है। जैसे- जहाँ धूम है वहाँ आग है, जैसे रसाई घर, यह अन्वय व्याप्ति है। इसमें हेतु के रहने पर साध्य का सद्भाव सिद्ध किया जाता है। यहाँ हेतु व्याप्य होता है और साध्य व्यापक। इस प्रकार के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। जैसे देवदत्तः मर्त्यः, मनुष्यत्वात्, यो यो मनुष्यः सः स मर्त्यः, यथा यज्ञदत्तः यत्र यत्र मर्त्याभावः तत्र तत्र मनुष्यत्वाभावः यथा ईश्वर।

२. केवलान्वयि - जिस हेतु में साध्य के साथ व्यतिरेकव्याप्ति नहीं पाई जाती, केवल अन्वयव्याप्ति होती है, वह हेतु केवलान्वयि कहलाता है। जैसे- 'घटोऽभिधेयः प्रमेयत्वात्, पटवत्' अर्थात् घर अभिधेय है क्योंकि वह प्रमेय है जैसे पट। यहाँ 'प्रमेयत्व' हेतु केवलान्वयि है क्योंकि 'जहाँ-जहाँ प्रमेयत्व है वहाँ-वहाँ अभिधेयत्व भी है, जैसे- पट' यह अन्वयव्याप्ति तो बन जाती है परन्तु जहाँ-जहाँ अभिधेयत्वाभाव है वहाँ- वहाँ प्रमेयत्वाभाव है, यह व्यतिरेकव्याप्ति नहीं बन पाती क्योंकि प्रमेयत्व और अभिधेयत्व सभी पदार्थों में है और उसका अभाव कहीं नहीं है। फलस्वरूप व्यतिरेक व्याप्ति नहीं है। अतः इस 'प्रमेयत्व' हेतु को केवलान्वयि कहेंगे।

३. केवलव्यतिरेकि - केवल व्यतिरेक व्याप्ति वाले लिङ्ग को केवलव्यतिरेकि कहते हैं। यहाँ अन्वयव्याप्ति सम्भव नहीं है। जैसे- 'पृथिवी इतरभेदवती, गन्धवत्त्वात्' (पृथिवी  पृथिवीतर) जलादि इतर द्रव्यों से भिन्न है, गन्धवती होने से ) यहाँ अन्वय व्याप्ति का स्वरूप होगा 'यत्र यत्र गन्धवत्त्वं तत्र तत्र पृथिवीतरभेदः' (जहाँ-जहाँ गन्धवत्त्व है वहाँ-वहाँ पृथिवीतर भेद है) यह अन्वयव्याप्ति नहीं बन सकती है क्योंकि गन्धवान् सभी पदार्थ पृथिवीत्व में ही आ गये हैं। घटादि को दृष्टान्त बनाया नहीं जा सकता है क्योंकि वह भी पृथिवी होने के कारण पक्ष ही है। जहाँ पृथिवीतरत्व और गन्धाभाव है ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं। जैसे 'यदितरेभ्यो न भिद्यते न तदगन्धवत् यथा जलम्' (जो पृथिवीतर जलादि पदार्थों से भिन्न नहीं है वह गन्धवान् नहीं है, यथा जल) इस प्रकार यहाँ व्यतिरेकव्याप्ति स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। अतः यहाँ गन्धवत्त्व हेतु केवलव्यतिरेकि है। केवलव्यतिरेकि हेतु में मीमांसकों के अर्थापत्ति प्रमाण का अन्तर्भाव हो जाता है।

७.

[ पक्षस्य किं लक्षणम्?] संदिग्धसाध्यवान् पक्षः। यथा धूमवत्त्वे हेतौ पर्वतः। [ सपक्षस्य किं लक्षणम्?] निश्चितसाध्यवान् सपक्षः। यथा तत्रैव महानसम्। [विपक्षस्य किं लक्षणम्? ] निश्चितसाध्याऽभाववान् विपक्षः। यथा तत्रैव महामदः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - यहाँ पर पक्ष, सपक्ष और विपक्ष के स्वरूप का उल्लेख किया गया है।

व्याख्या - [पक्ष का लक्षण क्या है?] जहाँ साध्य का सन्देह हो वह पक्ष है। जैसे - धूमवत्त्व हेतु में पर्वत। [ सपक्ष का क्या लक्षण है?] जहाँ साध्य का निश्चय हो वह सपक्ष है। जैसे- वहीं पर (धूमवत्त्व हेतु में) महानस (रसोई घर )। [ विपक्ष का क्या लक्षण है?] जहाँ साध्य का अभाव निश्चित हो। जैसे वहीं पर (धूमतत्त्व हेतु में) जलाशय।

सद् हेतु में निम्न ५ गुणों का होना आवश्यक बतलाया गया है उनमें से प्रथम तीन हैं- पक्षसत्त्व, सपक्ष सत्त्व ओर विपक्ष व्यावृत्व।

पक्ष - जिसमें साध्य के मौजूद रहने का सन्देह हो वह पक्ष कहलाता है। जैसे 'पर्वतों वह्निमान् धूमवत्वात्' इस अनुमिति स्थल में पर्वत पक्ष है क्योंकि वहीं पर 'पर्वत आग वाला है या नहीं है, यह सन्देह होता है। इस लक्षण के विरोध में कहा जाता है कि मानों कोई व्यक्ति सो रहा है, अचानक बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर 'गगनं मेघवत् धनगर्जनश्रवणात्' (आकाश मेघ वाला है क्योंकि मेघ का शब्द सुनाई पड़ रहा है, यह अनुमति होती है। यहाँ सोये हुए व्यक्ति के लिए सन्देह का प्रश्न नहीं है।

सपक्ष - जहाँ हमें पहले से ही साध्य का निश्चय रहता है जैसे उक्त अनुमिति स्थल में ही सपक्ष है ' रसोईघर'। इस तरह सपक्ष अन्वयव्याप्ति का दृष्टान्त होता है। अतः हेतु को पक्ष में रहना चाहिए।

विपक्ष - जहाँ हमें साध्य के अभाव का निश्चय पहले से ही रहता है। जैसे उक्त अनुमितिस्थल में विपक्ष है 'जलाशय'। व्यतिरेक व्याप्ति दृष्टान्त विपक्ष ही होता है। अतः हेतु को विपक्ष में न रहने वाला होना चाहिए।

८.

[ हेत्वाभासाः कतिविधाः?] सव्यभिचारविरुद्धसत्प्रतिपक्षासिद्धबाधिताः पञ्च हेत्वाभासाः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -प्रस्तुत पंक्ति में हेत्वाभास क्या है और ये कितने हैं? के विषय में बताया गया है।

व्याख्या - [हेत्वाभास कितने प्रकार के हैं?] हेत्वाभास पाँच हैं - सव्यभिचार, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष, असिद्ध और बाधित।

'हेतुवदाभासते हेत्वाभासः' जो सद् हेतु तो न हो परन्तु हेतु की तरह लगे ऐसे दोषमुक्त हेतु को हेत्वाभास कहते हैं। इस तरह जिसके ज्ञान से अनुमिति अथवा परामर्श रुक जाए वही है हेत्वाभास दोष। यह नियम है कि किसी वस्तु के ज्ञान के प्रति उस वस्तु के अभाव का ज्ञान प्रतिबन्धक होता है। जैसे 'हृदो बह्निमान् धूमात्' (जलाशय धूम होने से आग वाला है) में 'जलाशय आग के अभाव वाला है' इस प्रकार का ज्ञान हृदोवह्निमान' इस अनुमिति के प्रति प्रतिबन्धक है। इस तरह यहाँ प्रत्यक्षबाध नामक दोष है। सव्यभिचार नामक दोष अनुभिति का साक्षात् प्रतिबन्धक नहीं है अपितु अनुमति के कारण परामर्श का प्रतिबन्धक है। जैसे 'धूमवान् वह्नेः' में वह्नि हेतु 'धूमाभाव के अधिकरण तप्त लौहपिण्ड में रहता है' ऐसा व्यभिचारज्ञान व्याप्ति ज्ञान तथा तदुन्तरवर्ती लिङ्ग परामर्श को रोक रहा है। अन्वयव्यतिरेकि सद् हेतु पक्ष धर्मत्व आदि पाँच रूपों से युक्त होकर ही साध्य को सिद्ध करने में समर्थ होता है अतः यदि इनमें से किसी एक की कमी होती है तो सामान्यतः पाँच हेत्वाभास होते हैं। जैसे पक्षसत्त्व के अभाव में आश्रयासिद्ध और स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होंगे। सपक्ष सत्त्व के अभाव में असाधारण सव्यभिचार और अनुपसंहारी सव्यभिचार हेत्वाभास होंगे। विपक्षासत्त्व होने पर व्यात्यत्वासिद्ध, विरुद्ध और साधारण सव्यभिचार हेत्वाभास होंगे। प्रत्यक्षादि किसी बलवत्तर प्रमाण से खण्डित होने पर बाधित हेत्वाभास होगा। समान बलवान, हेत्वन्तर के रहने पर संत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास होता है।

हेत्वाभासों के अवान्तरं प्रकार निम्न हैं-

हेत्वाभास

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किसी एक हेतु में एक से लेकर पाँच दोष भी हो सकते हैं। जैसे- 'वायुर्गन्धवान् स्नेहात्' (वायु में गन्ध है, स्नेह गुण होने से ) यहाँ पाँचों दोष हैं। इसी प्रकार पर्वतों धूमवान् वह्नेः' (पर्वत धूम वाला है, आग होने से ) में साधारण सव्यभिचार और व्याप्यत्वासिद्ध ये दो दोष हैं। एक साथ एक हेतु में एकाधिक दोषों के रहने के कारण सव्यभिचार आदि ५ भेद हेतु के दोष हैं, न कि दुष्ट हेतु के पाँच प्रकार हैं। वैशेषिक मूलतः तीन हेत्वाभास मानते हैं - सव्यभिचार, विरुद्ध और असिद्ध। ये सत्प्रतिपक्ष और बाधित को आश्रयासिद्ध और सव्यभिचार के अन्तर्गत मानते हैं।

९.

[ सव्यभिचारस्य किं लक्षणं, कतिविधश्च सः?] सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः। स त्रिविधः साधारणाऽसाधारणानुपसंहारिमेदात्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - उक्त पंक्ति में सव्यभिचार हेत्वाभास के स्वरूप का उल्लेख किया जा रहा है।

व्याख्या - [ सव्यभिचार का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है? सव्यभिचार को अनैकान्तिक भी कहते हैं। साधारण, असाधारण और अनुपसंहारी भेद से यह तीन प्रकार का होता है।

सव्यभिचार को अनैकान्तिक भी कहते हैं कणाद ने इसे संदिग्ध कहा है क्योंकि इस हेतु में साध्य. की सिद्धि और साध्याभाव की सिद्धि दोनों होती है। सव्यभिचार के तीन भेद निम्नवत् हैं

१. साधारण अनैकान्तिक - अन्नम्भट्ट ने इसका लक्षण बताया है 'साध्य के अभाव वाले अधिकरण में रहने वाला' (साध्याभाववद्वृत्तिः)। परन्तु इसका तात्पर्य है साध्य के अधिकरणों और साध्याभाव के अधिकरणों मं) समान रूप से रहने वाला। अतएव इसे पक्ष, सपक्ष और विपक्ष तीनों में रहने वाला कहा जाता है। साधारण का अर्थ ही है जो सभी स्थलों में रहे। 'साध्याभाव वाले अधिकरण में भी रहना' यही इसका मुख्य निर्णायक तत्व है क्योंकि पक्ष और सपक्षवृत्तिता तो सद्हेतु में भी आवश्यक है। जैसे - 'पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वात् (पर्वत आग वाला है, क्योंकि प्रमेय है)। यहाँ प्रमेयत्व हेतु पक्ष पर्वत, सपक्ष रसोईघर आदि तथा विपक्ष सरोवर आदि में रहने से साधारण अनैकान्तिक है। ऐसा हेतु विपक्ष में भी रहने से अतिव्याप्ति दोष का जनक होता है। अतः इसका पूरा लक्षण - 'पक्षसपक्ष वृत्तित्वविशिष्टसाध्याभाववद्वृत्तित्वं साधारणत्वम्।

२. असाधारण अनैकान्तिक - सपक्ष और विपक्ष में न रहते हुए जो केवल पक्ष में रहे, वह असाधारण हैं। पक्ष में रहना और विपक्ष में न रहना यह तो सद्हेतु के लिए आवश्यक है परन्तु सपक्ष में न रहना इसका मुख्य दोषाधायक तत्त्व है। अतः ऐसा हेतु सभी लक्ष्य स्थलों में न रहने से अव्याप्ति दोष का जनक होता है। केवल व्यतिरेकि हेतु में सपक्ष होता ही नहीं है, अतः उसके वहाँ रहने और न रहने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है। इस तरह असाधारण का अर्थ है 'पक्ष के अतिरिक्त स्थलों में कहीं न रहना। जैसे- शब्दों नित्यः शब्दत्वात् (शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें शब्दत्व) है। यहाँ शब्दत्व हेतु केवल पक्ष शब्द में ही रहता है, यह न तो सपक्षभूत अत्मादि नित्य द्रव्यों में रहता है और न विपक्षभूत घटादि अनित्य द्रव्यों में रहता है। अतः इसका पूरा लक्षण - 'केवलव्यतिरेकिभिन्नत्वे सति सर्वसपक्षविपक्षव्यावृतत्वे च सति पक्षमात्रवृत्तित्वम् असाधारणत्व॑म्।

३. अनुपसंहारी अनैकान्तिक - जिसका न तो अन्वयव्याप्तिग्राहक ( सपक्ष)। दृष्टान्त मिले और न व्यतिरेकव्याप्तिग्राहक (विपक्ष ) दृष्टान्त मिले 'अन्वयव्यतिरेकदृष्टान्तरहितोऽनुपसंहारी'। इस तरह के स्थल में पक्ष में सभी पदार्थ आ जाते हैं जिससे सपक्ष और विपक्ष बचता ही नहीं है। जैसे 'सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' (सभी अनित्य हैं क्योंकि प्रमेय हैं)। यहाँ 'सर्वम्' में सभी पदार्थ पक्ष बन गये हैं। लक्षण में केवलान्वयि में अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'अन्वय' पद दिया गया है तथा केवलव्यतिरेकि में अतिव्याप्ति हटाने के लिए 'व्यतिरेक' पद दिया गया है।

१०.

[विरुद्धस्य किं लक्षणम्?] साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः। यथा शब्दोनित्यः कृतकत्वादिति। अत्र कृतकत्वं हि नित्यत्वाऽभावेनाऽनित्यत्वेन व्याप्तम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विरुद्ध हेत्वाभास का स्वरूप निर्धारण प्रस्तुत पंक्ति में किया जा रहा है।

व्याख्या - [विरुद्ध का क्या लक्षण है?] जो हेतु साध्य के अभाव में व्याप्त हो उसे विरुद्ध कहते हैं। जैसे- 'शब्द नित्य है, कार्यत्व होने से। यहाँ कृतकत्व (कार्यत्व) हेतु नित्यत्व के अभाव अनित्यत्व से व्याप्त है।

'साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः' जो हेतु साध्याभाव व्याप्त हो अर्थात् जहाँ हेतु रहे वहाँ साध्य का अभाव भी रहे वहीं विरुद्ध हेत्वाभास (साध्य विरोधी) है। सत्प्रतिपक्ष में अतिव्याप्ति वारणार्थ 'सत्प्रतिपक्षभिन्न' पद जोड़ना चाहिए। इस तरह विरुद्ध हेतु से हम जो सिद्ध करना चाहते हैं उससे उल्टा ही सिद्ध हो जाता है, जैसे 'शब्दो नित्यः कृतकत्वात्' (शब्द नित्य है क्योंकि उसमें कृतकत्व है )। यहाँ कृतकत्व ( जन्यत्व) हेतु से अनित्यता की सिद्धि हो रही है, न कि नित्यत्व की। इस तरह कृतकत्व हेतु साध्य नित्यत्व से विपरीत अनित्यत्व में व्याप्त होने से विरुद्ध है।

अन्तर-

(१) विरुद्ध कभी भी सपक्ष में नहीं रहता है जबकि साधारण अनैकान्तिक सपक्ष में भी रहता है।
(२) विरुद्ध विपक्ष में रहता है जबकि असाधारण अनैकान्तिक विपक्ष में नहीं रहता है।

(३) अनुपसंहारी में व्याप्ति घटित नहीं होती जबकि विरुद्ध में व्याप्ति साध्याभाव को सिद्ध करने वाली होती है।

(४) सत्प्रतिपक्ष में दूसरे हेतु से साध्याभाव ज्ञात होता है जबकि विरुद्ध में प्रथम हेतु से ही साध्याभाव ज्ञात हो जाता है।

११.

[सत्प्रतिपक्ष किं लक्षणम्?] यस्य साध्याभावसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते स सत्प्रतिपक्षः। यथा - शब्दो नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत्। शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाद्धटवत्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति में सत्प्रतिपक्ष हेतत्वाभास का विवेचन किया गया है

व्याख्या - [ सत्प्रतिपक्ष का क्या लक्षण है?] जिसके साध्याभाव का साधक दूसरा हेतु विद्यमान हो वह सत्प्रतिपक्ष है। जैसे शब्द नित्य है श्रावणत्व होने के कारण शब्दत्व के समान। [साध्याभाव का साधक हेत्वन्तर होगा ] शब्द अनित्य है कार्य होने के कारण, घट के समान।

 

यस्य साध्याभावसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते स सत्प्रतिपक्षः'। जिस हेतु के साध्य के अभाव को सिद्ध करने वाला दूसरा हेतु हो, वह सत्प्रतिपक्ष है। इसमें एक हेतु साध्य की सिद्धि करता है तो दूसरा साध्याभाव की। दोनों हेतु एकसमान बल वाले होते हैं जिससे निर्णय नहीं हो पाता है, इसीलिए दोनों ही सत्प्रतिपक्ष हेतु कहे जाते हैं। इसे गौतम ने प्रकरणसम ( निर्णय समान) कहा है। सत्प्रतिपक्ष शब्द का भी अर्थ है जिसका प्रतिपक्षी (विरोधी) मौजूद हो। जैसे- 'शब्दो नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत्' (शब्द नित्य है क्योंकि उसमें श्रावणत्व है, जैसे शब्दत्व)। यहाँ इसका तुल्य बलवान हेतु है 'शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाद्धरवत्' ( शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें कार्यत्व है, जैसे घट)। सत्प्रतिपक्ष शब्द दोषवाची भी है और दुष्टवाची भी। जैसे- 'सन् प्रतिपक्षः सत्प्रतिपक्षः' यह विग्रह दोषवाची है तथा 'सन् प्रतिपक्षो यस्य स सत्प्रतिपक्षः' यह विग्रह दुष्टवाची है।

अन्तर-

(१) विरुद्ध में जो हेतु साध्य के साधक के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं वही साध्याभाव को सिद्ध करता है जबकि सत्प्रतिपक्ष में दूसरा हेतु साध्याभाव का साधक होता है।

(२) बाधित में बलवत्तर प्रमाण (प्रत्यक्ष और श्रुति प्रमाण बलवत्तर है) से साध्याभाव सिद्ध किया जाता है जबकि सम्प्रतिपक्ष में समान बल वाले ( अनुमानान्तर ) से साध्याभाव सिद्ध किया जाता है। बाधित में निर्णय होता है सत्प्रतिपक्ष में नहीं होता। जैसे कोई कहे आग शीतल है' यहाँ प्रत्यक्ष बाधा से अग्नि में शीतलाभाव की सिद्धि हो रही है।

१२.

[असिद्धः कतिविध:?] असिद्धस्त्रिविधः - आश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धः व्याप्यत्वासिद्धश्चेति।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - उक्त पंक्ति में असिद्ध हेत्वाभास के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या - [ असिद्ध कितने प्रकार का है?] असिद्ध तीन प्रकार का है आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध और व्याप्यांसिद्ध। असिद्ध हेत्वाभास को भली-भाँति समझने के लिए इसके तीनों भेदों को पृथक-पृथक समझना होगा। असिद्ध को 'साध्यसम' भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ हेतु साध्य के समान संदिग्ध होता है। असिद्ध का सामान्य अर्थ है 'साध्यव्याप्य हेतु का पक्ष में न रहना। इसका लक्षण मूल में नहीं दिया है, टीका में दिया गया है- 'आश्रयासिद्धाद्यन्यतमत्वम्' (आश्रयासिद्ध आदि तीन में से कोई एक है)

१. आश्रयासिद्ध - 'पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षाप्रसिद्धपक्षतावच्छेदकाऽभाववत्पक्षकत्वम्' अर्थात् पक्षतावच्छेदक = पक्षत्व के विशिष्ट पक्ष का अप्रसिद्ध होना या पक्षतावच्छेक = पक्षत्व के अभाव वाला पक्ष है जिस हेतु का वह आश्रयासिद्ध है। अतः पक्ष में पक्षतावच्छेदक धर्म का न रहना आश्रयासिद्ध है, जैसे गगनारविन्दं सुरभि, अरविन्दत्वात् (आकाश कमल सुगन्धित है क्योंकि कमल है) यहाँ पक्ष है 'गंगनारविन्द' तथा पक्षतावच्छेदक है 'गगनीयत्व। यह गगनीयत्व' 'अरविन्द' में नहीं है क्योंकि आकाश में कमल नहीं खिलता है। इस तरह पक्ष (आश्रय) के असिद्ध होने से अथवा पक्ष में पक्षतावच्छेदक धर्म गगनीयत्व का अभाव होने से 'अरविन्द का हेतु आश्रयसिद्ध है। इस उदाहरण में अरविन्द और गगन दो पक्ष पृथक्-पृथक् तो प्रसिद्ध हैं परन्तु गगनीयत्व से विशिष्ट अरविन्द प्रसिद्ध नहीं है।

२. स्वरूपासिद्ध - 'पक्ष हेत्वाभाव: ' पक्ष में हेतु का न रहना ही स्वरूपासिद्ध है। जैसे- 'शब्दों गुणश्चाक्षुषवात्' (शब्द गुण है क्योंकि चाक्षुष है) यहाँ चाक्षुषत्व स्वरूपासिद्ध हेतु है क्योंकि शब्द कान से सुना है, न कि आँख से देखा जाता है। इस तरह चाक्षुषत्व हेतु पक्ष शब्द में नहीं रहता है अर्थात् हेतु में पक्षधर्मता नहीं है। आश्रयासिद्ध में पक्ष ही असिद्ध रहता है जबकि स्वरूपासिद्ध में पक्ष असिद्ध नहीं होता अपितु पक्ष में हेतु का सद्भाव असिद्ध होता है। अतः दोनों में अन्तर है। स्वरूपासिद्ध के चार भेद किये जाते हैं, जैसे-

(१) शुद्ध सिद्ध (जैसे शब्दो गुणः चाक्षुषत्वात्), (२) भागासिद्ध ( पक्ष के एक देश में न रहना, जैसे उद्भव रूपादिचतुष्टयं गुणः रूपत्वात्), (३) विशेषणाऽसिद्ध ( वायु प्रत्यक्षः, रूपवत्वेसति स्पर्शवत्त्वात्) (४) विशेष्याऽसिद्ध (वायुः प्रत्यक्षः, स्पर्शत्वे सति रूपवत्त्वात्)।

३. व्याप्यत्वासिद्ध - उपाधियुत्तं, हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहा जाता है 'सोपाधिकोहेतुः'। जैसे 'पर्वतो धूमवान् वह्निमत्वात्' पर्वत धूम वाला है क्योंकि आग वाला है। यहाँ 'आर्द्रेन्धनसंयोगः' उपाधि है क्योंकिधूम वहीं होता है जहाँ गीले इन्धन का संयोग हो। अयोगोलक आदि में आग तो रहती है परन्तु धूम नहीं रहता क्योंकि वहाँ आर्द्रेन्धनसंयोग नहीं है। अतः यह वह्निमत्त्व हेतु उपाधियुक्त होने से व्याप्यत्वासिद्ध है। 'साध्यव्यापकत्वेसति साधन अव्यापकत्वम् उपाधिः' साध्य के व्यापक होने पर साधन की अव्यापकता उपाधि है।

१३.

[ बाधितस्य किं लक्षणम्? ] यस्य साध्याभावः प्रमाणन्तरेण पक्षे निश्चितः स बाधितः। यथा वह्निरनुष्णो द्रव्यत्वादिति। अत्रानुष्णत्वं साध्यं तदभाव उष्णत्वं स्पार्शनप्रत्यक्षेण गृह्यत इति बाधितत्वम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - बाधित हेत्वाभास के स्वरूप का उपर्युक्त पंक्ति में विश्लेषण किया गया है।

व्याख्या - [ बाधित का क्या लक्षण है?] जिसके (जिस हेतु के) साध्य का अभाव प्रमाणान्तर से पक्ष में निश्चित हो वह हेतु बाधित है। जैसे आग शीतल है, द्रव्यत्व होने के कारण। यहाँ साध्य है शीतलता (अनुष्णत्व) और उसका अभाव जो उष्णत्व है, वह स्पार्शन प्रत्यक्ष से सिद्ध है, अतः यह द्रव्यत्व हेतु बाधित है।

जहाँ अनुमान प्रमाण से भिन्न किसी अन्य बलवत्तर प्रत्यक्षादि प्रमाण से साध्याभाव का निश्चय हो जाए वहाँ बाधित हेत्वाभास होता है। जैसे 'वह्निरनुष्णः' में आग की अनुष्णता (शीतलता) स्पार्शन प्रत्यक्ष से बाधित है क्योंकि स्पार्शन प्रत्यक्ष से आग की उष्णता ज्ञात है। सत्प्रतिपक्ष में तुल्यबल वाला दूसरा अनुमान प्रस्तुत किया जाता है, यहाँ ऐसा नहीं है। बाधित को कालात्ययापदिष्ट भी कहा जाता है।

उपमान प्रमाण

१४.

[उपमानप्रमाणस्य किं लक्षणम्, उपमितिश्च का?] उपमितिकरणमुपमानम्। संज्ञासंज्ञिसम्बन्ध- ज्ञानमुपमितिः ] तत्करणं सादृश्यज्ञानम्। अतिदेशवाक्यार्थस्मरणम-वान्तरव्यापारः। तथाहि कश्चित् गवयशब्दवाच्य (पदार्थ) - मजानन् कुतश्चिदारण्यकपुरुषात् 'गोसदृशो गवय' इति श्रुत्वा बनं गतो वाक्यार्थ स्मरन् गोसदृशं पिण्डपश्यति। तदन्तरं 'असौ (अयम्) गवयशब्दवाच्य' इत्युपमितिरुत्पद्यते।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - उपर्युक्त पंक्ति में उपमान' प्रमाण के स्वरूप का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - [ उपमान का क्या लक्षण है तथा उपमिति का क्या स्वरूप है?] उपमिति के करण को उपमान कहते हैं। संज्ञा और संज्ञी (पद और पदार्थ) के सम्बन्ध का ज्ञान उपमिति है। उस उपमिति का करण है 'सादृश्यज्ञान'। प्रामाणिक व्यक्ति के द्वारा कहे हुए वाक्य के अर्थ का स्मरण है 'अवान्तर व्यापार'। जैसे कोई 'गवय' शब्द के अर्थ को न जानता हुआ किसी वनेचर पुरुष से 'गवय गाय के समान होता है' ऐसा सुनकर वन में गया और वहाँ उस वाक्य के अर्थ का स्मरण करता हुआ गाय के समान किसी (शरीर) पिण्ड को देखता है, पश्चात् 'यह गवय शब्द का वाच्य है' ऐसी उपमिति उत्पन्न होती है।

'उपमिति' का कारण है 'उपमान'। संज्ञा-संज्ञी (पद और पदार्थ) के सम्बन्ध का ज्ञान है 'उपमिति' सादृश्यज्ञान (सादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञान) है 'करण' 'अतिदेशवाक्यार्थस्मरण' है 'व्यापार' तथा इसका फल है 'उपमिति'। संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः' संज्ञा (पद) और संज्ञी (पदार्थ) के वाच्यवाचक भावरूप सम्बन्ध का ज्ञान है उपमिति। यदि संज्ञासंज्ञि ज्ञान को उपमिति कहेंगे तो अनुमिति आदि में अतिव्याप्ति होगी क्योंकि उनसे भी संज्ञा-संज्ञी का ज्ञान होता है। अतः संज्ञासंज्ञि - सम्बन्धज्ञा को उपमिति कहा गया है। यहाँ 'अभिप्रेत गवय गवयपद वाक्य है। ऐसा शक्तिग्रह होने से गवयान्तर में अतिव्याप्ति नहीं होगी। इस उपमिति का करण है सादृश्यज्ञान। जैसे गवय को न जानने वाला कोई व्यक्ति किसी प्रामाणिक वनवासी से 'गोसदृशो गवयः' (गाय के समान गवय होता है) ऐसा सुनकर वन में जाता है और जब उसे वहाँ गाय के सदृश्य एक जंगली पशु दिखलाई पड़ता है तो वह वहाँ उस वनवासी के पूर्व में कहे गये वचन (अतिदेशवाक्य- 'गोसदृशी गवय:' इस पद का) का स्मरण करता है। पश्चात् उस स्मरण को प्रत्यक्ष गवय से सम्बन्धित करके कहता है 'असौ गवयशब्दवाच्यः' (यह गवय है )। यही उपमिति है। उपमिति के लिए अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण और सदृश पदार्थ का प्रत्यक्ष आवश्यक है।

'उपमितिकरणमुपमानम्' उपमिति का करण उपमान है। उपमिति का करण है 'सदृश्यज्ञान' अर्थात् सादृश्यज्ञान ही उपमान है। अन्नम्भट्ट ने उपमान को प्रमाण मानकर गौतम के मत का अनुसरण किया है। वैशेषिक और सांख्य उपमान का अनुमान में अन्तर्भाव मानते हैं। जैसे- 'अयं पिण्डो गवयपदवाच्यः, गोसादृश्यात्। यत्र यत्र गोसादृश्य तत्र तत्र गवयपदवाच्यत्वम्' परन्तु इसे अनुमान मानना ठीक नहीं है क्योंकि इस ज्ञान के बाद 'उपमिनोमि' ऐसा अनुव्यवसाय होता है, न कि अनुमिनोमि' ऐसा अनुव्यवसाय।

उपमान तीन प्रकार का माना जाता है-

१. सादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञान (सादृश्य द्वारा ज्ञान), जैसे सादृश्यविशिष्टपिण्डज्ञान करण है।

'गोसदृशो गवयः' यहाँ

२. वैधर्म्यविशिष्टपिण्डज्ञान (वैधर्म्य द्वारा ज्ञान), जैसे- ऊँट कैसा होता है? ऐसा पूछने पर 'उष्ट्रोनाश्वादिवत्समानपृष्ठहृस्वग्रीवशरीरः (जो घोड़े के समान पीठ वाला नहीं है तथा जिसकी ग्रीवा और शरीर बौना नहीं है वह ऊँट है। इस आप्रवचन से कालान्तर में 'असो उष्ट्रपदवाच्यः' (यह ऊँट शब्द का अर्थ है) ऐसी उपमिति होती है। इस तरह यहाँ वैधर्म्य विशिष्टपिण्डज्ञान करण है।

३. असाधारणधर्मविशिष्ट पिण्डज्ञान ( असाधारण धर्म द्वारा ज्ञान), जैसे खड्गमृग ( गैंडा ) कैसा होता है? ऐसा पूछने पर 'नासिकालसदेकश्रङ्गोऽनतिक्रान्तगजाकृतिश्च' (नाक में एक सींग वाला तथा हाथी के आकार अतिक्रमण न करने वाला गैंडा होता है) इस आप्तवचन से कालान्तर में 'खड्गमृगपदवाच्योऽसौ' (यह गैंडा पदवाच्य है) ऐसी उपमिति होती हैं। इस तरह यहाँ असाधारण धर्म से विशिष्टपिण्डज्ञान करण है।

शब्द प्रमाण

१५.

आप्तवाक्यं शब्दः। आप्तन्तु यथार्थवक्ता। वाक्यं पदसमूहः, यथा गामानयेति। शक्तं पदम्। अस्मात्पदादयमर्थो बोड्व्यरतीश्वरसङ्केतः शक्तिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - उपरोक्त पंक्तियों में शब्द प्रमाण के स्वरूप की व्याख्या की गयी है -

व्याख्या - आप्तपुरुष के वाक्य को शब्द प्रमाण कहते हैं। सत्यवक्ता को आप्त कहते हैं। पदों के समूह को वाक्य कहते हैं, जैसे- 'गाय को लाओ जिसमें शक्ति हो, उसे पद कहते हैं। इस पद से यह अर्थ जानना चाहिये' यह जो ईश्वर का संकेत है, वही शक्ति है।

'आप्तवाक्यं शब्दः' प्रान्तपुरुष - यथार्थवक्ता के पद समूहात्मक वाक्य को शब्द प्रमाण कहते हैं। बन्धक एवं भान्त वाक्य में अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'आप्त' पद दिया है। यदि वक्ता प्रामाणिक है तो उसका वचन भी प्रामाणिक है। आप्त के 'गामानय' (गाय को लाओ) इत्यादि वाक्य से होने वाला ज्ञान शब्द प्रभा है और शाब्दी प्रभा का जनक आप्तवाक्य ही शब्द प्रमाण है। अतः आगे कहा है 'वाक्यार्थज्ञानं शाब्दज्ञानम्। तत्करणं शब्दः' वाक्यार्थ के ज्ञान ही शाब्दज्ञान तथा उसके कारण शब्द को शब्द प्रमाण कहते हैं। परन्तु न्यायबोधिनीकार वस्तुतस्तु के द्वारा अपना मत प्रकट करते हैं 'पदज्ञानं करणम्। वृत्तिज्ञानमहकृतपदज्ञानजन्यपदार्थोपस्थितिर्व्यापारः। वाक्यार्थज्ञानं शब्दबोधः फलम्। वृत्तिर्नाम शक्तिलक्षणान्यतररूपा' ( पदज्ञान करण है वृत्तिज्ञान से सहकृत पदज्ञानजन्य पदार्थोपस्थिति व्यापार है। वाक्यार्थज्ञान शब्दबोधरूप फल है। वृत्ति का अर्थ है शक्ति और लक्षणा में से कोई एक )। यह विषय गम्भीर है तथा इस सन्दर्भ में विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद पाया जाता है।

१६.

( वाक्यार्थज्ञाने के हेतवः तेषां लक्षणानि च कानि?) आफाङ्क्षा योग्यता सन्निधिश्च वाक्यार्थज्ञाने हेतुः। पदस्य पदान्तरष्यतिरेकप्रयुक्तन्वयानुभावकत्वामाकाज्ञा। अर्थाभाधो योग्यता। पदानामचिलम्बेनोच्चारणं सन्निधिः। तथा च आकाङ्क्षादिरहितं वाक्यमप्रमाणम्। यथा गौरश्चः पुरुषो इस्तीति न प्रमाणमाकाङ्क्षाविरहात्। वह्निना सिञ्चेदिति न प्रमाणं योग्यताविरहात्। पहरे प्रहरेऽसहोच्चारितानि गामानदेत्यादिपदानि न प्रमाणं, सन्निध्याभावात्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग -इन पंक्तियों में वाक्यार्थज्ञान के हेतु एवं उनके लक्षणों पर प्रकाश डाला गया है -

व्याख्या - वाक्यार्थज्ञान के हेतु कितने हैं और उनके लक्षण क्या हैं? वाक्यार्थज्ञान (शब्दबोध) में तीन हेतु हैं आकाङ्क्षा, योग्यता और सन्निधि। दूसरे पद के प्रयोग के बिना जहाँ पद को शब्दबोधजनकतानहीं होती है उसे आकांक्षाकहते हैं (पद में पदान्तरव्यतिरेकप्रमुक्त जो अन्वयाननुभावकत्व है यहीं आकांक्षा है)। अर्थ में बाधा का अभाव (अर्थीबाध) योग्यता है। पदों का अविलम्ब (विलम्ब के बिना) उच्चारण सन्निधि है। (एव च, आकांक्षा आदि से रहित वाक्य अप्रमाण है। जैसे- 'गाय, घोड़ा, पुरुष, हाथी यह पदसमूह आकांक्षा से रहित होने के कारण प्रमाण नहीं है। 'आग से सींचिये' यह पद समूह योग्यता से रहित होने के कारण प्रमाण नहीं है। प्रहर - प्रहर में (एक एक प्रहर के बाद उच्चारण किये गये) एक साथ उच्चारण नहीं किये गये 'गाय लाओ' इत्यादि पद समूह सन्निध्य (समीप्य) से रहित होने के कारण प्रमाण नहीं है।

वाक्यार्थबोध अथवा शब्दबोध तभी होता है जब पदसमूह में आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि हो। इनमें से किसी एक का अभाव रहने पर शब्दबोध नहीं होगा। इस तरह ये तीनों कारण मिलकर वाक्यार्थ... का बोध कराने के कारण है, पृथक्-पृथक् नहीं। अतः 'हेतु' में एकवचन का प्रयोग किया गया है। मूल में प्रयुक्त आकाङ्क्षादि का अर्थ है - आकाङ्क्षाज्ञान्, योग्यताज्ञान और सन्निधिज्ञान के शाब्दबोध के प्रतिकरण हैं।

१. आकाङ्क्षा - 'पदस्य पदान्तरव्यत्तिरेकप्रयुक्तोन्ययाननुभावकत्यम्' जिस पद में किसी दूसरे पद के अभावप्रयुक्त जो शाब्दबोध की अजनकता है, वही आकाङ्क्षा है। अर्थात् आकांक्ष पद ही शब्दबोध कराते हैं, निराकाङ्क्ष नहीं। न्यायबोधिनी के अनुसार जिन पदों का यादृश पूर्वापरीभाव न होने के कारण शब्दबोध न हो, उन पदों का तादृश पूर्वापरीभाव है 'आकाङ्क्षा'। जैसे 'गामनव' इस वाक्य में जो 'गो' पद है उसका शब्दबोध 'अग्' पद के बिना नहीं होता, क्योंकि 'गो आनय' इस वाक्य से अर्थ प्रतीत नहीं होता। अतः 'गामानय' इस वाक्य के अर्थज्ञान (शाब्दबोध) में गोपदोत्तर 'अस्' पद की आकांक्षा हेतु है। 'गम्' प्रत्यय का अर्थ है 'कर्मत्व'। अतः 'गाम्' पद का अर्थ हुआ 'गोकर्मक'। 'अग्गो' ऐसा विपरीत उच्चारण करने पर शब्दबोध नहीं होगा। इसी प्रकार 'आनय' में भी 'धातु का अर्थ है 'लाना', और लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन का अर्थ है 'आदेश'। गो, अइच, पुरुष आदि पदसमूह आकाशङ्क्षारहित होने से प्रमाण नहीं है। अतः आकाङ्क्षाज्ञान शब्दबोध के प्रति कारण है।

२. योग्यता - " अर्थाबाधो योग्यता' अर्थ के बाध का अभाव योग्यता है। जैसे- "वह्निनासिञ्चेत्' यहाँ सिन्चन क्रिया की योग्यता आग में बाधित है, अतः इस वाक्य से शाब्दबोध नहीं होता। परन्तु जब हम 'जलेनसिञ्चेत्' कहते हैं तो जल से सिञ्चनक्रिया संभव होने से ( बाधाभाव होने से शब्दबोध होता है)।

३. सन्निधि - 'पदानामविलम्बेनोच्चारणम्' पदों का बिना अन्तराल के उच्चारणसन्निधि है। जैसे 'गाम् वानव'। यदि इन दो पदों का उच्चारण एक-एक घण्टे के बाद किया जायेगा तो शब्दबोध नहीं होगा। यदि एक साथ (शीघ्रता से या प्रथम शब्दश्रवण का संस्कार जितनी देर तक ठहरता है उतने समय के अन्दर) उच्चारण करते हैं तो शब्दबोध होता है। इस तरह सन्निधि भी शब्दबोध के प्रति कारण है।

१७.

[वाक्यं कतिविधिम् ] वाक्यंद्विविर्धवैदिकं लौकिकं च। वैदिकमीश्वरोक्तत्वात्सर्वमेव प्रमाणम्। लौकिकं स्थाप्ताक्तं प्रमाणम्। अन्पदप्रमाणम्।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - उपरोक्त पंक्तियों में वाक्य कितने प्रकार के होते हैं, पर प्रकाश डाला जा रहा है।

व्याख्या - वाक्य कितने प्रकार के होते हैं? वाक्य दो प्रकार के हैं- वैदिक एवं लौकिक। वैदिक ईश्वरोक्त होने से सभी प्रमाण हैं। आप्तव्यक्ति के द्वारा उक्त लौकिक वाक्य प्रमाण है, शेष (मिथ्यावादियों के ' द्वारा उक्त) अप्रमाण।

वाक्य दो प्रकार के हैं- वैदिक और लौकिक। वैदिक वाक्य ईश्वरोक्त होने से सभी प्रमाण हैं। लौकिक वाक्य यदि यथाथ-वक्ता द्वारा कहे गये हैं तो प्रमाण है अन्यथा अप्रमाण।

वेदों को भीमांसक अपौरूषेय एवं नित्य मानते हैं परन्तु नैयायिक उन्हें ईश्वर के द्वारा रचित मानते हैं तथा शब्द को अनित्य मानते हैं। आकाश के नित्य होने से उनके गुण को भी नित्य होना चाहिये। यह आवश्यक नहीं है। नैयायिक शब्द की अनित्यंता अनुमान से सिद्ध करते हैं- 'शब्दोऽनित्यः सामान्यवत्वे गति बहिरिन्द्रियजन्यलौकिकप्रत्यक्षविषयत्वात्, लौकिक-प्रत्यक्षविशेष्यत्वाद्वा, घटवत्'। वैदिक वाक्यों में श्रुति संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्) के साथ स्मृति, इतिहास और पुराण का भी संग्रह किया जाता है।

१८.

शब्दज्ञानम् किम्? वाक्यार्थज्ञानं शब्दज्ञानं। तत्करणं तु शब्दः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।
प्रसंग - उपरोक्त पंक्ति में शब्द ज्ञान के स्वरूप का विवेचन किया गया है।

व्याख्या - शब्दज्ञान का स्वरूप क्या है? वाक्य के अर्थ का ज्ञान शब्दज्ञान है। उसका कारण शब्द है।

शब्द ज्ञान जो कि प्रभा है उसका कारण है 'शब्द'। यहाँ शब्द से तात्पर्य है 'वाक्य' या 'पद समूह'। नय्यनैमागिक पद ज्ञान को कारण मानते हैं। जैसा कि कारिकावली में विश्वनाथ जी ने कहा है-

"पदज्ञानं तु करणं द्वारं तप पदार्गधीः। शाब्दबोधः फलं तभ शक्तिधी: सहकारिणी ॥"

शब्दबोध के प्रति पदज्ञानकरण है, पदार्थज्ञान व्यापार (द्वार) है, शाब्दबोध फल है और शक्तिज्ञान सहायक है। अर्थात् 'गतिज्ञानसहृकृतपदज्ञानजन्मपदार्थोपरिस्थितिः शाब्दबोधं प्रति कारणम् शक्तिज्ञान से सहवृन्त पदज्ञान से उत्पन्न पदार्थ की उपस्थिति (स्मरण) शाब्दबोध के प्रति कारण है।

प्रमाणों के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की चर्चा दीपिक टीका में की गई है। संक्षेप में सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को स्वतः (ज्ञान की ग्राहक सामग्री से ही उसकी प्रमाणता एवं अप्रमाणता का ज्ञान होना) मानते हैं। नैयायिक दोनों को परतः (जहाँ ज्ञान की ग्राहक सामग्री से भिन्न सामग्री द्वारा उस ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य का निश्चय किया जाता है) मानते हैं, अतः वे वेदों का भी प्रामाण्य ईश्वर के द्वारा रचित होने से मानते हैं। उसका कहना है कि यदि प्रामाण्य स्वतः मानेंगे तो संशयादि नहीं होंगे। मीमांसक प्रमाण्य को स्वतः अप्रामाण्य को परतः स्वीकार करते हैं। बौद्ध प्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः मानते हैं। जैन प्राप्ति की अपेक्षा अभ्यास दशा में दोनों को स्वतः और अनाभ्यास दशा में परतः मानते हैं परन्तु उत्पत्ति की अपेक्षा न्यायमत का अनुसरण करते हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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